एक कथाकार के रूप में भीष्म साहनी पर यशपाल और प्रेमचंद की गहरी छाप रही। उनकी कहानियों में अन्तर्विरोधों एवं जीवन के द्वन्द्व, विसंगतियों से जकड़े मध्य वर्ग के साथ ही निम्न वर्ग की जिजीविषा और संघर्षशीलता को उद्घाटित किया गया है।
आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रमुख स्तंभ एवं उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की परंपरा के अग्रणी लेखक 'पद्म भूषण' भीष्म साहनी की आज जयंती है। रचनात्मक शीर्षस्थता और मानवीय मूल्यों के साथ-साथ वह अपनी मिठास भरी सहृदयता के लिए भी अन्य लेखकों से अलग माने जाते हैं। उनके उपन्यास 'तमस' पर फ़िल्म और दूरदर्शन धारावहिक भी प्रसारित हुआ था, जो लंबे समय तक काफी चर्चाओं में लोकप्रिय रहा।
एक कथाकार के रूप में भीष्म साहनी पर यशपाल और प्रेमचंद की गहरी छाप रही। उनकी कहानियों में अन्तर्विरोधों एवं जीवन के द्वन्द्व, विसंगतियों से जकड़े मध्य वर्ग के साथ ही निम्न वर्ग की जिजीविषा और संघर्षशीलता को उद्घाटित किया गया है। उन्होंने आम आदमी के दु:ख और संघर्ष को अपने शब्दों से कभी ओझल नहीं होने दिया। उनके जीवन की सबसे बड़ी ट्रेजडी रहा देश का विभाजन, उसे ही उन्होंने 'तमस' में रेखांकित किया। उन्होंने आज़ादी के साथ देश के बँटवारे के समय की भयानक क्रूरता देखी थी। भयंकर से भयंकर परिस्थिति के बीच से ज़िंदगी की वापसी के चमत्कार को उन्होंने अपनी रचनाओं में अलग-अलग तरीके से रेखांकित किया।
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अपनी आत्मकथा में भीष्म साहनी लिखते हैं - 'जब मैं कहता, “माँ, मैं अगस्त के महीने में तो पैदा नहीं हुआ था, पिताजी ने मेरी जन्म तिथि अगस्त में कैसे लिखवा दी? तो माँ सर झटककर कहती- यह वह जानें या तुम जानो। मैं तो इतना जानती हूँ कि तुम बलराज से एक महीना कम दो साल छोटे हो। अब हिसाब लगा लो।' हिंदी के सबसे कामयाब नाटकों में एक ‘हानूश’ लिखे जाने के बाद साहनी एक दिन अपने बड़े भाई बलराज के पास उनकी मंजूरी के लिए भागे-भागे पहुंचे। बलराज ने नाटक को पास नहीं किया। भीष्म साहनी ने बिना कोई गिला-शिकवा जताए निराश मन से लौट गए। कुछ समय बाद नाटक को पुनर्संपादित कर वह मंजूरी के लिए दोबारा बलराज साहनी के पास पहुँचे। फिर उन्हें निराश होना पड़ा। वह तीसरी बार नाटक लेकर निर्देशक इब्राहीम अल्काजी के पास गए, जिन्होंने कई दिनों तक नाटक अपने पास रखा और बिना देखे वापस कर दिया। बाद में जब राजिंदर नाथ ने 'हानूश' को मंचित किया तो वह करोड़ों लोगों के दिलों पर छा गया।
उन्हें अपनी रचनाओं में कहीं भी भाषा को गढ़ने की ज़रुरत नहीं हुई। स्वातन्त्र्योत्तर लेखकों की भाँति वे सहज मानवीय अनुभूतियों और तत्कालीन जीवन के अन्तर्द्वन्द्व को लेकर सामने आए और उसे रचना का विषय बनाया। अपूर्वानंद लिखते हैं- कुछ लोग भीष्म साहनी को इस डर से नहीं पढ़ते कि कहीं उनके भीतर की इंसानियत उनकी सोई पड़ी आत्मा को कुरेदने न लगे। उनकी रचनाओं में सामाजिक अन्तर्विरोध पूरी तरह उभरकर आया है। राजनैतिक मतवाद अथवा दलीयता के आरोप से दूर भीष्म साहनी ने भारतीय राजनीति में निरन्तर बढ़ते भ्रष्टाचार, नेताओं की पाखण्डी प्रवृत्ति, चुनावों की भ्रष्ट प्रणाली, राजनीति में धार्मिक भावना, साम्प्रदायिकता, जातिवाद का दुरुपयोग, भाई-भतीजावाद, नैतिक मूल्यों का ह्रास, व्यापक स्तर पर आचरण भ्रष्टता, शोषण की षड़यन्त्रकारी प्रवृत्तियों व राजनैतिक आदर्शों के खोखलेपन आदि का चित्रण बड़ी प्रामाणिकता व तटस्थता के साथ किया है। उनके प्रसिद्ध उपन्यास 'झरोखे', 'तमस', 'बसंती', 'नीलू नीलिमा नीलोफर', मैयादास की माड़ी शामिल हैं। सर्वोत्कृष्ट कहानियों में 'वांग्चू', 'अमृतसर आ गया', है और नाटक 'हानूश', 'कबीरा खड़ा बाज़ार में' और 'माधवी' प्रमुख हैं।
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वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह कहते हैं- कहानियों में 'वांग्चू', नाटकों में 'कबीरा खड़ा बाज़ार में' और उनके सबसे बेहतरीन उपन्यास 'तमस' को मैं प्राथमिकता देता हूँ।' बताते हैं कि देश विभाजन के दौरान एक दिन जब भीष्म साहनी बड़े भाई बलराज साहनी के साथ भिवंडी में दंगे वाले इलाक़ों में गए और उन उजड़े मकानों, तबाही और बर्बादी का मंज़र देखा तो उन्हें 1947 के रावलपिंडी का दृश्य याद आया और दिल्ली लौटने के बाद उन्होंने 'तमस' लिखा।
'तमस' से जुड़े एक क़िस्से को याद करते हुए फिल्म निर्देशक गोविन्द निहलानी बताते हैं- "दिल्ली में इंडिया इंटरनेशनल फ़िल्म फ़ेस्टिवल चल रहा था। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के साथ एक मीटिंग आयोजित की गई। इंदिरा जी आईं और फिर मेरा नंबर आया। मैंने उनसे पूछा कि मैडम अगर मेरे पास भारत विभाजन जैसे विषय पर कोई गंभीर कहानी हो तो क्या भारत सरकार सहयोग करेगी?" इंदिरा जी ने कहा कि सरकार के सहयोग का क्या मतलब है। मैंने कहा- "आर्थिक मदद।" उन्होंने तुरंत पूछा कि आप इस विषय पर कब फ़िल्म बनाना चाहते हैं। मैंने कहा कि जब मेरे पास फ़ंड होगा। उन्होंने कहा कि "ये निर्भर करता है, उस वक़्त देश के राजनीतिक हालात पर। उसके अनुसार सरकार ये तय करेगी कि आपको मदद दे या न दे।" दरअसल, इंदिरा गांधी को जब कथानक पता चला था तो वह उसके प्रसारण से सहम गई थीं कि पता नहीं देश की जनता के बीच उसकी क्या प्रतिक्रिया हो।
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