मैं हूँ बनफूल भला मेरा कैसा खिलना, क्या मुरझाना: भारत भूषण
एक शिक्षक के तौर पर करियर की शुरुआत करने वाले भारत भूषण बाद में काव्य की दुनिया में आए और छा गए। उनकी सैकड़ों कविताओं व गीतों में सबसे चर्चित 'राम की जलसमाधि' रही। उन्होंने तीन काव्य संग्रह लिखे।
भारत भूषण उन दिनो अपनी इच्छा से चाहे जो भी गीत सुनाएं, उनके तीन गीतों को सुनाने की मांग जरूर हुआ करती थी- 'बनफूल', 'ये असंगति जिंदगी के द्वार' और 'राम की जल समाधि'। कवि भारत भूषण का जन्म उत्तर प्रदेश के मेरठ शहर में आठ जुलाई 1929 को हुआ था। वह उस जमाने में पैदा और जवान हुए, जब भारत अंग्रेजों का गुलाम था। भारत भूषण की रनचाओं को लेकर यह सवाल अक्सर बड़ा होता रहा है कि देश के कवि-साहित्यकार जब आजादी के आंदोलन में जूझ रहे थे, वह छायावादी शब्दों के झुंड में धुरी रमाए रहे। अपने आसपास से, देश-समाज की पीड़ा से बेखबर रह कर रचा जा रहा साहित्य कुछ उसी तरह महत्वहीन हो जाया करता है, जिस तरह समय के फेर में स्वांतः सुखाय रचा गया अन्य कोई भी साहित्य।
शायद यही वजह रही कि अपने समय में मंचों पर बराबर गूंजते रहे भारत भूषण को आधुनिक पीढ़ी ने उतनी गंभीरता से नहीं लिया। उन्हें मुक्तिबोध, नागार्जुन, त्रिलोचन, रामधारी सिंह दिनकर जैसी पहचान नहीं मिली। भारत भूषण की प्रमुख कृतियां हैं - 'सागर के सीप', 'ये असंगति तथा मेरे चुनिंदा गीत' आदि। इसके अतिरिक्त आकाशवाणी एवं दूरदर्शन के कार्यक्रमों में वह लगातार सक्रिय रहे। लगभग पचास वर्षों से भारतवर्ष के सुदूरतम स्थानों पर हुए कवि सम्मेलनों में उनकी मुखर भागीदारी रही। संवेदनात्मक, मधुर और साहित्यिक गीतों की रचना ही उनके जीवन का उद्देश्य रहा। भारत भूषण को उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने साहित्य भूषण से अलंकृत किया था। 17 दिसंबर 2011 को उनका निधन हो गया। भारत भूषण की प्रसिद्ध कविता 'बनफूल' -
मेरठ में 1990 के दशक में एक दिन मेरी भी उनसे मुलाकात हुई। तब वह वयोवृद्ध हो चुके थे। चलने-फिरने में असमर्थ से लगे लेकिन जब अपने घर की छत से नीचे के दालान तक वह तेज-तेज चलते हुए बातें करने लगे, तो उनके अंदर की इच्छा शक्ति और जिजीविषा देखकर मैं हैरत से भर उठा। उस बातचीत में वह वर्तमान की मंचीय साहित्यिक की गिरावट से काफी आहत और क्षुब्ध नजर आए। उनका कहना था कि अब तो हमारे मंचीय युग का अवसान हो रहा है। कई लोग अच्छा लिख रहे हैं लेकिन उन्हें भी मंचों पर अब पहले की तरह आदर-सम्मान नहीं दिया जा रहा है। संस्थागत पुरस्कार भी अपनों को, सुपरिचितों को, लल्लो-चप्पो करने वालों को बांटे जा रहे हैं, न कि रचना के स्तर और महत्व को देखते हुए। 'फिर फिर बदल दिए कैलेंडर' गीत उनके उन्हें दिनो के आंतरिक असंतोष की उपज था -
कवि कृष्ण मित्र के शब्दों में उनकी लिखी कविता जय सोमनाथ उनका सबसे बेहतरीन सृजन था। ये कविता साहित्य प्रेमियों को सदैव याद रहेगी। कवि डा. कुंवर बेचैन कहते हैं कि कवि सम्मेलन के मंचों पर उनकी गंभीर रचनाएं सुनने के लिए लोग बहुत उत्सुक रहते थे। राम की जल समाधि ने हिंदी साहित्य में एक अलग पहचान बनाई। उन्होंने जो भी गीत लिखे, वह दिल को छूते थे। उन्होंने अपने गीतों से लोगों का दिल जीत लिया। इन्होंने हिन्दी में स्नातकोत्तर शिक्षा अर्जित की और प्राध्यापन को जीविकावृत्ति के रूप में अपनाया। एक शिक्षक के तौर पर करियर की शुरुआत करने वाले भारत भूषण बाद में काव्य की दुनिया में आए और छा गए। उनकी सैकड़ों कविताओं व गीतों में सबसे चर्चित 'राम की जलसमाधि' रही। उन्होंने तीन काव्य संग्रह लिखे।
दिल्ली में जब हिन्दी भवन के नियमित कार्यक्रमों की शृंखला में एक नई कड़ी जुड़ी- 'काव्य-यात्रा : कवि के मुख से', तो इसके अंतर्गत यह निश्चय किया गया कि हिन्दी-काव्य की वाचिक परंपरा को संरक्षित करने और उसे सुदृढ़ बनाने के लिए वर्ष में एक या उससे अधिक बार हिन्दी के किसी एक वरिष्ठ कवि का एकल काव्य-पाठ सुधी श्रोताओं के सम्मुख कराया जाए। इस कार्यक्रम की शुरुआत वाचिक परंपरा के उन्नायक और हिन्दी भवन के संस्थापक पं.गोपालप्रसाद व्यास की दूसरी पुण्यतिथि 28 मई, 2007 से की गई, जिसमें पहली बार भारतभूषण ने अपना काव्य-पाठ किया। भारतभूषण ने हिन्दी भवन के धर्मवीर संगोष्ठी कक्ष में श्रोताओं के सम्मुख अपने चुनिंदा छह-सात गीत सुनाए। 'कवि के मुख से' कार्यक्रम का संचालन हिन्दी के वरिष्ठ गीतकार डॉ कुंवर बेचैन ने किया। ये कवि-सम्मेलन उर्दू मुशायरों के समानांतर शुरू हुए।
हिन्दी के पुराने कवियों ने सोचा कि हिन्दी को जन-जन तक पहुंचाने के लिए जगह-जगह कवि-सम्मेलन आयोजित किए जाएं। इससे काव्य की वाचिक परंपरा पुनर्जीवित हुई। निराला, रामकुमार वर्मा, हरिवंशराय बच्चन, श्रीनारायण चतुर्वेदी, श्यामनारायण पाण्डे, गोपालप्रसाद व्यास, गोपालसिंह नेपाली तथा गोपालदास नीरज आदि ने काव्य की वाचिक परंपरा को आगे बढ़ाया। इसी परंपरा की एक कड़ी रहे थे भारतभूषण। वे हिन्दी गीत-विधा के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर थे। उस आयोजन में जब भारतभूषण ने अपने इस गीत का सस्वर पाठ किया, हाल तालियों से अनवरत गूंजता रहा-
उस दिन भारतभूषण ने काव्य-पाठ से पूर्व हिन्दी भवन और सुधी श्रोताओं का आभार व्यक्त करते हुए कहा कि दिल्ली ने मुझे बहुत जल्दी अपना लिया। सन् 54 या 55 में लाल किले में पहली बार काव्य-पाठ करने आया था। उसके कुछ समय बाद ही मुझसे स्नेह रखने वाले चाचाजी, यानि पं. गोपालप्रसाद व्यास ने राष्ट्रपति भवन में डॉ राजेन्द्रप्रसाद के सम्मुख काव्य-पाठ करने के लिए बुलाया। अपने देहांत से 4-5 वर्ष पूर्व महादेवी वर्मा के सान्निध्य में इलाहाबाद में एक गोष्ठी हुई, जिसमें सिर्फ 10-15 लोग ही थे। वहां मैंने 'राम की जल समाधि' गीत पढ़ा। गीत समाप्त होने पर महादेवीजी ने स्नेह से मेरे कंधे पर हाथ रखा और बोलीं -भाई, तुमने आज तक राम पर लगे सभी आक्षेपों को इस गीत से धो दिया है। उस दिन भारतभूषण ने अपने काव्य-पाठ का समापन 'राम की जल समाधि' गीत से किया। उनका यह गीत गीति-काव्य में मील का पत्थर माना जाता है। इस गीत को सुनकर 'राम की जल समाधि' का करुण और मार्मिक चित्र आखों के सामने उपस्थित हो जाता है-
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