पिछले कई वर्षों से प्रदेश में पर्यावरणीय असंतुलन व मौसम में हुए परिवर्तन के कारण सभी फसल चक्र प्रभावित रहे हैं, अभी पिछल साल रबी फसलों के दौरान अतिवृष्टि व ओलावृष्टि के कारण बड़े पैमाने पर फसले बर्बाद हुईं, और हजार से अधिक किसानों ने आत्महत्या की या सदमें से उनकी मौत हुई।
बटाईदारी का आशय ऐसे किसान से है, जो दूसरों की जमीन पर खेती करते हैं और उस फसल का आधा हिस्सा जमीन मालिकों को दे देते हैं। इन लोगों का नाम राजस्व रिकार्ड में दर्ज नहीं होता है, क्योंकि इनके नाम जमीन नहीं होती है। एक अनुमान के मुताबिक उत्तर प्रदेश में लगभग तीन करोड़ किसान व लगभग एक करोड़ बटाईदार किसान हैं, इसके अतिरिक्त बड़ी सख्ंया में कृषि मजदूर हैं। जो दूसरों के खेत में काम कर अपना गुजर-बसर करते हैं।
पिछले कई वर्षों से प्रदेश में पर्यावरणीय असंतुलन व मौसम में हुए परिवर्तन के कारण सभी फसल चक्र प्रभावित रहे हैं, अभी पिछल साल रबी फसलों के दौरान अतिवृष्टि व ओलावृष्टि के कारण बड़े पैमाने पर फसले बर्बाद हुईं, और हजार से अधिक किसानों ने आत्महत्या की या सदमें से उनकी मौत हुई। किसान चूंकि जमीन का मालिक हैं, उनका नाम राजस्व रिकार्ड में दर्ज है, फसलों को नुकसान होने की स्थिति में राजस्व विभाग उसी को मुआवजा देता है। किन्तु बटाईदारों को कुछ नहीं मिलता है, क्योंकि जमीन उसके नाम नहीं है और इसलिए राजस्व रिकार्ड में उसका नाम दर्ज नहीं है। जब कि खेती करते समय वह भी अपना बहुत कुछ खेती में निवेश करता है और वहीं खेती उसके लिए भी आस/सहारा होती है। एक तरह से फसलों की बर्बादी का ज्यादा गहरा असर बटाईदारों पर ही पड़ता है।
बटाईदारी की एक और विधा है, जिसे जानना जरूरी है, जो कमोबेश पूर्वांचल सहित पूरे प्रदेश में प्रचलन में है। वह है कुन्तल पे लेना (इसे अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग नामों से बोला और समझा जाता है)। यानि कि यहां बटाईदार किसी खेत को खेत मालिक से लेकर खेती करता है, और एक निर्धारित हिस्सा फसल चक्र के दौरान खेत मालिक को दे देता है। ध्यान रहे यहां खेत मालिक को इस बात से कोई लेना-देना नहीं होता है कि पैदावार हुई या नहीं हुई या कोई और कारण रहा। वह समय पर अपना निर्धारित हिस्सा ले लेता है, जिसे बटाईदार को प्रत्येक स्थिति में देना होता है। गौरतलब है कि यह सब कुछ खेत मालिक और बटाईदार के बीच मौखिक संविदा के तहत होता है, न कि किसी लिखित संविदा के तहत। सभी जानते हैं कि इन सबका कोई कानूनी आधार नहीं है।
उ.प्र. जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम-1950 में बटाईदारी के लिए सामान्यत: कोई जगह नहीं है। दरअसल इस सदिच्छा के पीछे उद्देश्य था कि जमींदारी व्यवस्था दुबारा से सिर न उठा सके। जिसे इतने वर्षों के जद्दोजहद के बाद खतम किया जा सका है किन्तु अधिनियम की धारा 156 और 157 के अनुसार विशेष दशाओं में ही अपनी भूमि को पट्टे पर दिया जा सकता है, जैसे विकलांगजन जो शारीरिक निर्बलता के कारण खेती करने में असमर्थ हो, पागल व्यक्ति, या जो कारावास में हो, या फिर एकल महिलायें व सेना में कार्यरत लोग, अपने कुल खेत को या उसके किसी भाग को पट्टे पर दे सकते हैं।
बात सिर्फ फसलों के बर्बादी के बाद मुआवजे की नहीं है, बल्कि अन्य मामलों में भी ऐसा ही होता है। किसान दुर्घटना बीमा योजना के तहत यदि किसी किसान की किन्हीं कारणों से आसामयिक मृत्यु हो जाये, जैसे बिजली गिरने, सांप काटने, दुर्घटना होने आदि से तो किसान को दुर्घटना बीमा योजना के तहत लाभ दिया जायेगा। यहां किसान की पात्रता में यह भी है कि किसान का भूमि मालिक होना जरूरी है, अर्थात खतौनी में उसका नाम होना चाहिए। बटाईदारों व भूमिहीनों के लिए यहां भी बाधाएं है। उन्हें इस योजना का लाभ नहीं मिल सकता है।
जबकि इसके वास्तविक हकदार वही हैं क्योंकि खेती-किसानी से जुड़े होने के कारण इस तरह की दुर्घटना का शिकार वही होते हैं। आज एक ऐसी नीति की जरूरत है जिसमें बटाईदारों एवं भूमिहीन मजदूरों के कृषि उत्पादन में योगदान को स्वीकार किया जाए एवं ऐसी परिस्थिति में जब कृषि उत्पाद को नुकसान पहुंचे, उन्हें भी मुआवजे का हकदार माना जाए। नुकसान की स्थिति में ऋण माफी या अगली फसल के लिए बीज, खाद, पानी व बिजली पर सब्सिडी का लाभ उन्हें भी मिले। इसी वर्ष 11 फरवरी को उत्तर प्रदेश में नई राजस्व संहिता लागू कर दिया गया है किन्तु इसमें भी बटाईदार किसानों की समास्या का समाधान नहीं किया गया है। नई राजस्व संहिता की धारा- 95 में किसी नि:शक्त व्यक्ति द्वारा पट्टा किये जाने का प्रावधान किया गया है। किन्तु ग्रामीण समाज के तानेबाने को देखते हुए यह उपाय कारगर नहीं लगता है। बटाईदारी की समस्या की शिकार सबसे अधिक महिलायें ही हैं, क्योंकि वहीं कृषि मजदूर की रूप में खेती-किसानी को संभाले हुए हैं।बटाईदार किसानों की व्यथा कौन सुनेगा !
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