हिंदी कहानी में आधुनिकता का बोध लाने वाले कहानीकारों में निर्मल वर्मा का नाम अग्रणी है। साहित्य से सम्बंधित शायद ही कोई भारतीय पुरस्कार होगा, जो निर्मल वर्मा को न मिला हो। यहां पढ़ें उनकी कहानी 'परिंदे' औऱ 'वे दिन' के वो अंश, जो आपको निर्मल वर्मा के लेखन का मुरीद बना देंगे। साथ ही यहां हम आपको उनकी डायरी का वो हिस्सा पढ़ा रहे हैं, जो उनकी बेचैनी, खुशी, जीवंतता का आईना है।
हिंदी कहानी में आधुनिकता का बोध लाने वाले कहानीकारों में निर्मल वर्मा का नाम अग्रणी है। इनका मुख्य योगदान हिंदी कथा-साहित्य के क्षेत्र में माना जाता है। परिंदे, जलती झाड़ी, तीन एकांत, पिछली गरमियों में, कव्वे और काला पानी, बीच बहस में, सूखा तथा अन्य कहानियाँ आदि कहानी-संग्रह और वे दिन, लाल टीन की छत, एक चिथड़ा सुख तथा अंतिम अरण्य इनके उल्लेखनीय उपन्यास हैं।
निर्मल वर्मा वे लेखक हैं, जिन्होंने अपनी रचनाओं में नई और एक अलग ही दुनिया गढ़ दी। हम जब उन्हें पढ़ते हैं तो उनके साथ उनकी रचनाओं में सफर करने लगते हैं। रोजमर्रा की घटनाओं, मानवीय आदतों, कमियों-खूबियों को उन्होंने उतने ही सहज रूप में लिखा है, जितना बाकी की दुनिया ने उसे कठिन बना रखा है। निर्मल वर्मा खुद भी मस्त रहते थे और कोशिश करते थे कि आस-पास सब मगन रहें, जीते रहें। निर्मल वर्मा जिंदगी के नैराश्य से हाथ छुड़ाकर भागन में यकीन नहीं रखते, बल्कि उन्होंने कालेपन को बिल्कुल अपना लिया था, अपना हिस्सा बना लिया था। नतीजन वे नैराश्य का भी आनंद लेते थे।
निर्मल वर्मा ने दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंट स्टीफेंस कालेज से इतिहास में एम.ए. करने के बाद पढ़ाना शुरू कर दिया था। चेकोस्लोवाकिया के प्राच्य-विद्या संस्थान प्राग के निमंत्रण पर 1959 में वहां चले गए और चेक उपन्यासों तथा कहानियों का हिंदी अनुवाद किया। इस दरम्यान उनकी लेखनी से कैरेल चापेक, जीरी फ्राईड, जोसेफ स्कोवर्स्की और मिलान कुंदेरा जैसे लेखकों की कृतियों का हिंदी अनुवाद सामने आया। निर्मल वर्मा को हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों का ज्ञान था। लेकिन निर्मल वर्मा का मुख्य योगदान हिंदी कथा-साहित्य के क्षेत्र में माना जाता है। 1970 तक निर्मल यूरोप प्रवास पर रहे। यूरोप के पूर्वी-पश्चिमी हिस्सों में वो खूब घूमे और वहां रहकर उन्होंने आधुनिक यूरोपीय समाज का गहरा अध्ययन किया। इस अध्ययन का असर उनके भारतीय सभ्यता और धर्म संबंधी चिंतन पर भी हुआ। यूरोप से वापसी के बाद निर्मल वर्मा इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ एडवान्स्ड स्टडीज, शिमला में फेलो चयनित हुए। यहां रहते हुए उन्होंने ‘साहित्य में पौराणिक चेतना’ विषय पर रिसर्च की।
1977 में निर्मल वर्मा को अयोवा यूनिवर्सिटी अमेरिका से इंटरनेशनल राईटिंग प्रोग्राम में शामिल होने का बुलावा मिला। 1980 में हंगरी, सोवियत संघ, जर्मनी और फ्रांस गए। भारतीय लेखकों के प्रतिनिधि मंडल में वे भी बतौर सदस्य थे। 1987 में फेस्टिवल ऑफ़ इंडिया कमिटी के निमंत्रण पर शिकागो विश्वविद्यालय में आयोजित ‘भारतीय साहित्य’ विषयक संगोष्ठी में भाग लिया। 1988 में हाईडेलबर्ग यूनिवर्सिटी में उन्होंने अज्ञेय स्मारक व्याख्यान दिया।
निर्मल वर्मा के कुल छः कहानी संग्रह है। इनका पहला कहानी-संग्रह ‘परिंदे तथा अन्य कहानियाँ’1959 में प्रकाशित हुआ था। इसमें सात कहानियाँ संकलित हैं। ‘जलती गाड़ी’ दूसरा संग्रह है, जिसमें दस कहानियाँ संगृहित हैं। बाकी के चार हैं- ‘पिछली गर्मियों में’(1968), ‘बीच बहस में’(1973), ’कव्वे और काला पानी’(1983), 'सूखा तथा अन्य कहानियां’(1995)। इसके साथ ही निर्मल वर्मा ने पांच उपन्यास भी लिखे। पहला उपन्यास ‘वे दिन’ है, दूसरा ‘लाल टीन की छत’, तीसरा ‘एक चिथड़ा सुख’, चौथा ‘रात का रिपोर्टर’। ‘अंतिम अरण्य’ निर्मल वर्मा के उपन्यास लेखन का अंतिम पड़ाव है।
आज पढ़िए, उनकी कहानी 'परिंदे' औऱ 'वे दिन' के वो अंश, जो आपको निर्मल वर्मा के लेखन का मुरीद बना देंगे। साथ में आपको उनकी डायरी का भी कुछ हिस्सा पढ़ा रहे हैं, जो उनकी बेचैनी, खुशी, जीवंतता का आईना है।
"हमारा बड़प्पन सब कोई देखते हैं, हमारी शर्म केवल हम देख पाते हैं। अब वैसा दर्द नहीं होता, जो पहले कभी होता था तब उसे अपने पर ग्लानि होती है। वह फिर जान-बूझकर उस घाव को कुरेदती है, जो भरता जा रहा है, खुद-ब-खुद उसकी कोशिशों के बावजूद भरता जा रहा है।"
"तुम मदद कर सकते हो, लेकिन उतनी नहीं जितनी दूसरों को जरूरत है और यदि जरूरत के मुताबिक मदद नहीं कर सको तो चाहे कितनी भी मदद क्यों न करो, उससे बनता कुछ भी नहीं।
तुम बहुत से दरवाजों को खटखटाते हो, खोलते हो और उनके परे कुछ नहीं होता, फिर अकस्मात् कोई तुम्हारा हाथ खींच लेता है, उस दरवाजे के भीतर जिसे तुमने खटखटाया नहीं था। वह तुम्हें पकड़ लेता है और तुम उसे छोड़ नहीं सकते।"
"हमें समय के साथ अपने लगावों और वासनाओं को उसी तरह छोड़ते चलना चाहिए, जैसे सांप अपनी केंचुल छोड़ता है... और पेड़ अपने पत्तों-फलों का बोझ...! जहां पहले प्रेम की पीड़ा वास करती थी, वहां सिर्फ खाली गुफा होनी चाहिए, जिसे समय आने पर सन्यासी और जानवर दोनों छोड़कर चले जाते हैं। बूढ़ा होना क्या धीरे-धीरे अपने आप को खाली करने की प्रक्रिया नहीं है? अगर नहीं है तो होनी चाहिए... ताकि मृत्यु के बाद जो लोग तुम्हारी देह लकड़ियों पर रखें, उन्हें भार न महसूस हो, और अग्नि को भी तुम पर ज्यादा समय न गंवाना पड़े, क्योंकि तुमने अपने जीवनकाल में ही अपने भीतर वह सब कुछ जला दिया है, जो लकड़ियों पर बोझ बन सकता था..."
"जब मैं अपने विगत के बारे में सोचता हूं, तो वे सब घर याद आते हैं, जहां मैं रहा था, नए शहर और लम्बी यात्राएं और पुराने मित्र। उन लोगों के चेहरे याद आते हैं, जो वर्षों पहले इस दुनिया को छोड़कर चले गए और वे लोग जो अब भी इस दुनिया में हैं, लेकिन जो हमारी जिंदगी में कभी नहीं आएंगे- पढ़ी हुई किताबें, छोड़े हुए घर, छूटे हुए रिश्ते...कोई अंत है? उनके बारे में सोचता हूं तो अपनी जिंदगी कितनी लंबी जान पड़ती है... लेकिन जब अपने आप से पूछता हूं कि इतनी लंबी जिंदगी ने मुझे क्या सिखाया- तो लगता है, कि मैंने जीवन अभी शुरू ही नहीं किया है... मैं उन लोगों में से हूं, जो मृत्यु के क्षण तक अपने जन्म की मृत्यु की प्रतीक्षा करते हैं।
-प्रज्ञा श्रीवास्तव
Related Stories
June 05, 2017
June 05, 2017
Stories by yourstory हिन्दी